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fatty Liver & Ayurved फैटी लीवर: आयुर्वेदिक अवधारणा और उपचार फैटी लीवर एक ऐसी बीमारी है, जिसमें लीवर में अतिरिक्त वसा जमा हो जाती है। यह दो प्रकार का हो सकता है, अल्कोहलिक और नॉन अल्कोहलिक फैटी लीवर। फेटी लिवर से स्टीटो-हेपेटाइटिस (यकृत की सूजन), घाव, सिरोसिस और अंतिम चरण की यकृत रोग हो सकता है। भारत में लगभग 5 में से 1 व्यक्ति के लीवर में अतिरिक्त वसा है और 10 में से 1 व्यक्ति को फैटी लीवर की बीमारी है। सामान्य भारतीय आबादी में इस बीमारी की व्यापकता लगभग 9-32% होने का अनुमान है, मोटे और मधुमेह रोगियों में इसकी घटना दर अधिक है। फैटी लीवर के बढ़ने तक आम तौर पर कोई लक्षण नहीं होते हैं या रोगी को पेट के ऊपरी हिस्से में भारीपन, थकान, एनोरेक्सिया आदि महसूस हो सकता है। इसका निदान इमेजिंग या बायोप्सी तकनीकों द्वारा किया जा सकता है। आयुर्वेदिक संदर्भ में, इसे यकृतोदर रोग से सहसंबद्ध किया जा सकता है। उदर गुहा में प्रकट होने वाले जो रोग पेट के फैलाव का कारण बनते हैं उन्हें उदररोग कहते है। इस स्थिति में अग्नि रोग के प्रकट होने में प्रमुख भूमिका निभाती है। मंदानि ओर मल संचय उदर रोग के दो मुख्य कारण है। लगातार मानवीय प्रयासों और दवा की खोज के बावजूद, आधुनिक चिकित्सा के पास देने के लिए बहुत कम है। बहरहाल, आयुर्वेद के शास्त्रीय स्वामित्व और पेटेंट फॉर्मूलेशन ने आशाजनक परिणाम दिखाए है। आयुर्वेदिक पाठ्य पुस्तको में यक्रतोदर को प्लीहोदर के साथ कोष्ठक में रखा गया है। प्लीहोदर में दी जाने वाली सभी औषधियों का उपयोग यकृतोदर में भी किया जा सकता है। रोहितकारिष्ट और आरोग्यवर्धिनी वटी फैटी लीवर के प्रबंधन में बहुत प्रभावी है। कोई भी आयुर्वेदिक दवा आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह के अनुसार ही लेनी चाहिए।